इसे आम बोलचाल में शतावर और शतावरी के नाम से जाना जाता है. अलग अलग भाषा में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे –
हिन्दी में- सतावर
संस्कृत में – शतावरी, शतमूली, शतविर्या, बहुसुता, अतिरसा, शतपडी, वरी, नारायणी, पीवरी
गुजराती में – शतावरी
मराठी में – शतावरी
बांग्ला में – शतमूली
राजस्थानी में – नाहर काँटा
संथाली में – केदारनारी
तमिल में – सडावरी
तेलगु में – चल्ला गड्डा
कन्नड़ में – मज्जिगे गड्डे
मलयालम में – शतावली
फ़ारसी में – सतवारी
उर्दू में – सतावर
अंग्रेज़ी में – वाइल्ड एस्पेरेगस(Wild Asparagus) और
लैटिन में – एस्पेरेगस रेसिमोसस(Asparagus Racemosus) कहा जाता है.
पहले हमारे एरिया के जंगलों में भी यह मिल जाती थी पर अब यह जंगलों से विलुप्त होने की कगार पर है. आयुर्वेद में इसका काफ़ी डिमांड होने से बड़े पैमाने पर इसकी खेती भी की जाने लगी है. घर की शोभा बढ़ाने के लिए लोग अब इसे गमलों में भी लगाते हैं.
आयुर्वेदानुसार इसे वातपित्त शामक माना जाता है. प्रमेह, प्रदर, बन्ध्यत्व, दूध की कमी, रक्तपित्त, अम्लपित्त इत्यादि अनेकों रोगों में इसका प्रयोग किया जाता है.
शतावरी के गुण
यह पुष्टिकर, बलकारक, शीतल, मधुर, वीर्यवर्द्धक, मूत्रल और टॉनिक जैसे गुणों से भरपूर होती है.
शतावरी घृत, नारायण तेल, शतमुल्यादि लौह जैसे आयुर्वेदिक योगों का यह मुख्य घटक होती है. वैसे तो शतावरी के सैंकड़ों प्रयोग हैं, पर यहाँ मैं कुछ मुख्य प्रयोग बताऊंगा जिनमे आतंरिक और बाहरी प्रयोग शामिल हैं. सबसे पहले जानते हैं –
शतावर के कुछ बाहरी प्रयोग या एक्सटर्नल यूज़ के बारे में
1) कान दर्द होने पर – शतावरी के रस को हल्का गर्म कर कान में डालना चाहिए
2) दन्तरोग में – शतावर, बकुल और लोध्र को पीसकर मंजन करने से लाभ होता है. 3) वात रोगों में – शतावरी तेल की मालिश और इसका एनिमा लेने से लाभ होता है 4) ज़ख्म होने पर – शतावर के पत्तो को पीसकर घी में भुनकर पट्टी करते रहने से पुराना से पुराना ज़ख़्म जल्दी भर जाता है.
5) दुबलापन में – शतावरी घृत की मालिश करने से लाभ होता है.
6) केश रोगों में – शतावरी को दूध में मिक्स कर पीसकर छानकर इस दूध से बाल धोने से बाल, काले घने और लम्बे होते हैं.
शतावरी के आन्तरिक प्रयोग –
अम्लपित्त में – शतावर चूर्ण को दूध के साथ सेवन करें.
शतावर चूर्ण को सज्जीक्षार, कदली क्षार, शँख भस्म या कपर्द भस्म में से किसी एक के साथ मिलाकर लेने से भी अम्लपित्त में लाभ होता है.
शतावर चूर्ण, सज्जीक्षार और निम्बू का रस लेने से भी एसिडिटी दूर होती है.
प्रमेह में – शतावर चूर्ण में मिश्री मिलाकर दूध से लें.
शतावर, गोखरू, चन्दन बुरादा, आँवला और मिश्री बराबर वज़न में लेकर चूर्ण बनाकर सेवन करने से प्रमेह दूर होता है.
शतावर के रस में दूध मिलाकर पीने से सभी प्रकार का प्रमेह दूर होता है.
बुखार में – शतावर और गिलोय के रस में गुड़ मिलाकर पीने से वात ज्वर दूर होता है.
शतावर, गिलोय, मुलेठी का क्वाथ बनाकर पिप्पली चूर्ण मिलाकर पीने से वातपित्त ज्वर नष्ट होता है.
शतावर, गिलोय, मुलेठी, खस, अनन्तमूल और चन्दन का क्वाथ मिश्री मिलाकर पीने से भ्रमयुक्त पित्तज्वर दूर होता है.
प्रदर में – शतावरी चूर्ण को शहद के साथ लेने से श्वेत प्रदर और तन्डूलोदक के साथ सेवन करने से रक्तप्रदर में लाभ होता है.
शतावर, मुलेठी और नागकेशर के चूर्ण को ठण्डे पानी के साथ लेने से रक्त प्रदर में लाभ होता है.
कामोत्तेजना और काम शक्ति बढ़ाने के लिए – शतावरी, तालमखाना, गोखरू, कौंच बीज, नागबला और अतिबला सभी बराबर वज़न में लेकर चूर्ण कर सुबह-शाम दूध के साथ लेने से कामशक्ति बढ़ती है और वीर्य दोष दूर होता है.
शतावर, मुनक्का, खजूर, महुआ के फूल, उड़द दाल और कौंच बीज को दूध में पकाकर घी और शक्कर मिलाकर खाने से शरीर को पुष्टि मिलती है और पॉवर स्टैमिना बढ़ता है.
पेप्टिक अल्सर में – शतावरी के चूर्ण को पत्तागोभी के रस के साथ लेने से पेप्टिक अल्सर में लाभ होता है.
दाह या जलन होने पर – शतावर, गिलोय और आँवला का क्वाथ बनाकर शहद मिलाकर पीने से शारीरिक दाह दूर होती है.
जोड़ों के दर्द में- शतावर, असगंध और त्रिफला का चूर्ण कर गर्म पानी से लेना चाहिए
रक्तविकार में – शतावर, बला मूल और चक्रमर्द के मूल का क्वाथ बनाकर पीना चाहिए.
अनिद्रा में – भैंस के दूध में शतावरी का चूर्ण मिलाकर खीर बनाकर घी मिलाकर खाने से अनिद्रा के रोगी को लाभ होता है.
रतौंधी में – शतावरी के कोमल पत्तों का घी में शाक बनाकर खाना चाहिए.
गला बैठने पर – शतावरी, खरेंटी के चूर्ण में मिश्री मिलाकर चाटने से लाभ होता है.
इस तरह से शतावर के सैंकड़ों प्रयोग हैं जिन्हें रोगानुसार प्रयोग कर आप लाभ उठा सकते हैं. शतावर के कुछ दुसरे आयुर्वेदिक योग भी हैं जैसे – शतावरी मंडूर, शतावरी पाक, शतावरी गुग्गुल, शतावरी तेल, शतमुल्यादि लौह, शतावरी चूर्ण और शतावरी घृत इत्यादि.
शतावरी घृत –
अलग-अलग ग्रंथों में कुछ अलग टाइप से इसकी निर्माण विधि लिखी हुयी है, यहाँ मैं भैसज्य रत्नावली में वर्णित शतावरी घृत की निर्माण विधि बताना चाहूँगा.
शतावरी घृत निर्माण विधि –
इसके निर्माण के लिए चाहिए होगा शतावरी का रस 2 लीटर 560 ml, दूध भी इतना ही, गाय का घी 280 ml, जीवक, ऋषभक, मेदा, महा मेदा, काकोली, क्षीर काकोली, मुनक्का, मुलेठी, मुद्गपर्णी, माषपर्णी, विदारीकन्द और रक्त चन्दन प्रत्येक 25-25 ग्राम लेकर पीसकर कल्क बना लें. सभी एक कडाही में डालकर शातारी के रस के बराबर पानी डालकर मन्द अग्नि में घृत पाक कर लें. घृत सिद्ध होने पर ठंडा होने के बाद 160 ग्राम शहद और इतना ही पीसी हुयी शक्कर मिक्स कर रख लें. यही शतावरी घृत है.
शतावरी घृत की मात्रा और सेवन विधि – 5 से 12 ग्राम तक दूध से
शतावरी घृत के फ़ायदे –
यह घृत उत्तम पौष्टिक, शीतवीर्य और बाजीकरण है. रक्तपित्त, वातरक्त और क्षीणशुक्र रोगियों के लिए बेजोड़ है. अंगदाह, शिरोदाह, ज्वर, पित्त प्रकोप, योनीशूल, दाह, पित्तज मूत्रकृच्छ जैसे रोगों का शमन कर बल, वीर्य, वर्ण और अग्नि की वृद्धि करता है और शरीर को पुष्ट करता है. इसमें मिलाई जाने वाली कुछ जड़ी-बूटियाँ आज के समय में विलुप्त हैं तो इसकी जगह पर इनके प्रतिनिधि द्रव्यों को ले सकते हैं.