वैद्य जी की डायरी में जो भी बताया जाता है वह बना बनाया कहीं नहीं मिलता, इसे ख़ुद से तैयार करना होता है. इसका नाम है 'हिंगु वटी'
आज का नुस्खा तैयार करने के लिए चाहिए होगा -
शोधित हीरा हींग 20 ग्राम, कड़वी कूठ, घोड़बच, शुद्ध सुहागा, जावाखार, सोंठ, काली मिर्च और पीपल प्रत्येक 10-10 ग्राम
हिंगु वटी निर्माण विधि
सभी को कूट-पीसकर चूर्ण बना लें और इसे खरल में डालकर अदरक के रस, पान के पत्ते के रस और सहजनमूल छाल के रस की एक-एक दिन एक-एक भावना देकर अच्छी तरह से खरल कर 500 mg की गोलियाँ बनाकर सुखाकर रख लें.
मात्रा और सेवन विधि
एक से दो गोली दिन में तीन-चार बार तक गोरखमुण्डी अर्क या गर्म पानी से
हिंगु वटी के फ़ायदे
गुल्म या पेट में गोला बनना, पेट दर्द होना, मन्दाग्नि, बहुत डकारें आना, हाथ-पैर की ऐंठन, गैस्ट्रिक, हृदय की धड़कन बढ़ना जैसे रोगों में इसके सेवन से लाभ हो जाता है. वात विकारों में भी इसके सेवन से लाभ होता है.
वैद्य जी की डायरी में आज इतना ही, आज की दी गयी जानकारी के बारे में कोई सवाल हो तो कमेंट कर पूछिये.
संस्कृत में - अस्थि शृंखला, अस्थिसंहारी, वज्रवल्ली
हिन्दी में - हड़जोड़
गुजराती में - हाडसांकल
मराठी में - कांडवेल
बांग्ला में - हाड़जोड़ा
तमिल में - पिण्डयि
तेलुगु में - नल्लेरू
कन्नड़ में - मंगरोली
अंग्रेज़ी में - एडिबुल-स्टेम्ड वाइन कहते हैं जबकि
लैटिन में - सिसस कवैडरेन्गुलारिस( Cissus Quadrangularis, Vitis Quadrangularis) जैसे नामों से जाना जाता है
लम्बी-लम्बी तीन-चार धारी वाली हड्डियों के सांकल के समान दिखने वाली लता होने कारण ही इसे अस्थि श्रृंखला कहा जाता है. तासीर में यह उष्ण या गर्म होती है.
हड़जोड़ के गुण
आयुर्वेदानुसार यह कफ़वात शामक, पित्तवर्द्धक, अस्थिसंधानीय, दीपक, पाचक, अनुलोमक, स्तम्भक, रक्त शोधक, रक्त स्तम्भक और क्रीमी नाशक जैसे गुणों से भरपूर होती है.
हड़जोड़ के उपयोग
हड्डी टूटने और वात रोगों में अक्सर गाँव के लोग इसके पकौड़े बनाकर खाते हैं. इसके काण्ड के छिलके हटाकर, उड़द की दाल में मिक्स कर तिल के तेल में पकौड़े बनाकर खाने से हर तरह के वात रोगों में चमत्कारी लाभ होता है. यकीन न हो तो आप से आज़मा कर देख लें.
हड्डी टूटने पर इसे इसे पीसकर इसका लेप कर ऊपर से प्लास्टर करने से टूटी हुयी हड्डी बहुत तेज़ी से जुड़ जाती है.
टूटी हड्डी के रोगी को इसका ताज़ा रस दस से बीस ML तक पीना चाहिए.
रीढ़ की हड्डी के दर्द में इसके कांडों का बिछौना बनाकर रोगी लिटाया जाता है, यह एक प्राचीन प्रयोग है.
हड़जोड़ और सोंठ बराबर मात्रा में लेकर कूटपीसकर चूर्ण बनाकर सेवन करने से अग्निमान्ध और अजीर्ण दूर होकर पाचन शक्ति ठीक होती है और भूख बराबर लगने लगती है.
मसूड़ों की सुजन में इसके रस को मूंह में रखने से लाभ होता है.
ध्यान रहे - इसे स्किन पर ऐसे ही लगाने या फिर खाने से थोड़ी चुन-चुनाहट होती है.
अस्थिसंहारकादि चूर्ण -
भैषज्य रत्नावली में वर्णित यह एक बड़ा ही विशिष्ट योग है जिसे आज का वैद्य समाज भूल गया है.
इसका निर्माण बड़ा ही सरल है, इसके लिए हड़जोड़ के कांड और पत्ते, पीपल की लाख, गेहूँ दाना और अर्जुन छाल सभी समान भाग लेकर कूट-पीसकर चूर्ण बना लें. एक चम्मच इस चूर्ण को सुबह-शाम एक टी स्पून घी और एक ग्लास दूध के साथ लेने से टूटी हुयी हड्डी, टुटा हुआ जोड़ और हर तरह के फ्रैक्चर में बेजोड़ लाभ होता है.
तिल तेल में सिद्ध कर इसका तेल भी बनाया जाता है जो चोट-मोच, वात व्याधि और फ्रैक्चर में लाभकारी होता है.
आयुर्वेद की प्रसिद्ध औषधि 'लक्षादि गुग्गुल' का भी यह एक घटक है.
यह एक शास्त्रीय आयुर्वेदिक औषधि है जो बहुत कम प्रचलित है. इस योग से आप अनभिज्ञ न रहें इसके लिए आज मैं पाशुपत रस के गुण, उपयोग और निर्माण विधि के बारे में बताऊंगा, तो आईये जानते हैं इसके बारे में सबकुछ विस्तार से -
पाशुपत रस के घटक और निर्माण विधि -
शुद्ध पारा एक भाग, शुद्ध गन्धक 2 भाग, तीक्ष्ण लौह भस्म 3 भाग और शुद्ध बच्छनाग 6 भाग लेकर सब से से पहले पत्थर के खरल में पारा-गन्धक को खरल कर कज्जली बना लें
इसके बाद शुद्ध बच्छनाग का बारीक चूर्ण और तीक्ष्ण लौह भस्म को डालकर 'चित्रकमूल क्वाथ' में एक दिन तक घोटें.
इसके बाद धतूरे के बीजों की भस्म 32 भाग, सोंठ, मिर्च, पीपल, लौंग और इलायची प्रत्येक 3-3 भाग, जायफल और जावित्री प्रत्येक आधा भाग, पञ्च नमक ढाई भाग, थूहर, आक, एरण्ड मूल, अपामार्ग, पीपल(वृक्ष) क्षार, हर्रे, जवाखार, सज्जी क्षार, शुद्ध हीरा हिंग, जीरा और शुद्ध सुहागा प्रत्येक एक-एक भाग लेकर बारीक चूर्ण बनाकर पहले वाली दवा में मिलाकर एक दिन तक निम्बू के रस में घोंटकर एक-एक रत्ती की गोलियाँ बनाकर सुखाकर रख लें. बस पाशुपत रस तैयार है.
पाशुपत रस की मात्रा और सेवन विधि
एक-एक गोली सुबह-शाम भोजन के बाद ताल मूली के रस और पानी से
पाशुपत रस के गुण
आयुर्वेदानुसार यह शोधक, दीपक, पाचक, संग्राहक, आमपाचक, वात नाशक, पित्त शामक और कफ़ नाशक भी है. ह्रदय को शक्ति देने वाली और तेज़ी से असर अकरने वाली औषधि है. इसके सेवन से विशुचिका शीघ्र नष्ट होती है.
पारे और गंधक के रसायन और पाचक गुणों के अतिरिक्त इसमें लौह रक्तवर्धक, जायफल और धतुरा बीज रोधक गुणों से पूर्ण है. क्षार, लवण और थूहर भेदक गुणों का होता है. इस प्रकार से यह औषधि रोधक और भेदक होने से आँतों की क्रिया शिथिलता को दूर करने में सफ़ल है. यह आंत, लिवर और स्प्लीन को एक्टिव करती है और शक्ति देती है. अग्नि को तेज़ कर पाचन ठीक करती है और प्रकुपित वायु को भी नष्ट करती है.
पाशुपत रस के रोगानुसार अनुपान
अलग-अलग अनुपान से इसके सेवन से अनेकों रोगों में लाभ होता है जैसे -
तालमूली के रस के साथ सेवन करने से उदर रोगों या पेट की बीमारियों को नष्ट करती है
मोचरस के साथ सेवन करने से अतिसार या दस्त की बीमारी दूर होती है
संग्रहणी में इसे छाछ के साथ सेंधानमक मिलाकर लेना चाहिए
दर्द वाले रोगों या वात रोगो में इसे पीपल, सोंठ और सौवर्चलवण के साथ लेना चाहिए
पीपल के चूर्ण के साथ लेने से TB की बीमारी में लाभ होता है
बवासीर में छाछ के साथ लें
पित्त रोगों में बुरा और धनिये के साथ लेना चाहिए
इसी तरह से पीपल और शहद के साथ लेने से कफ़ रोगों को दूर करती है.
ध्यान रहे - यह तेज़ी से असर करने वाली रसायन औषधि है तो इसे स्थानीय वैद्य जी की देख रेख में ही सेवन करना चाहिए.